30/6/2020
जाट नायक - चूड़ामन जाट
चूड़ामन सिंह चूड़ामन के पिता ब्रजराज की दो पत्नियाँ थीं– इन्द्राकौर तथा अमृतकौर। दोनों ही मामूली ज़मींदार परिवार से थीं। चूड़ामन की माँ, अमृतकौर चिकसाना के चौधरी चन्द्रसिंह की पुत्री थी। उसके दो पुत्र और थे– अतिराम और भावसिंह। वे दोनों भी मामूली ज़मींदार (भूमिधारी) थे। सम्भवतः चूड़ामन सिनसिनी पर शत्रु का अधिकार होने के बाद डीग, बयाना और चम्बल के बीहड़ों के जंगली इलाक़ों में छिप गया होगा। वह 'मारो और भागो' की छापामार पद्धति से लूटपाट करता था। चूड़ामन को जनता का समर्थन प्राप्त था। चूड़ामन स्वंय अपने प्रति निष्ठावान था। जाट-लोग कठोर जीवन व्यतीत करते थे। वे न दया चाहते थे और न दया करते थे। चूड़ामन कर्मठ और व्यावहारिक व्यक्ति था। उसने जाटों को उन्नत एवं दृढ़ बनाया। उसके समय में पहली बार 'जाट शक्ति' शब्द प्रचलन में आया बदनसिंह तथा सूरजमल के नेतृत्व में जाट शक्ति अठारहवीं शती में हिन्दुस्तान में एक शक्तिशाली ताक़त बन गई थी। चूड़ामन सिंह ने सन् 1721 में आत्महत्या की, तब उसके भाई का पौत्र सूरजमल चौदह बरस का था। चूड़ामन की छापामार लड़ाकू सेना चूड़ामन में नेतृत्व के गुण विद्यमान थे। उसने एक ज़बरदस्त छापामार लड़ाकू सेना तैयार की थीं। उसकी नीति थी– किसी क़िले या गढ़ी में घिरकर बैठने की अपेक्षा कुछ घुड़सवारों को लेकर गतिशील रहना, योजना बनाकर विरोध करना, युद्ध की योजना बनाना, अनुशासन बनाना और एक के बाद एक मोर्चा खोलने के लिए लगातार चलते रहना। जिससे शत्रु आराम से नहीं रह पाते थे। शत्रुओं को रास्तों की जानकारी ना होने और भारी साज़-सामान होने के कारण उनकी गतिशीलता कम हो जाती थी और वे जंगलों में भटक जाते थे। सिनसिनवार जाटों ने मुरसान और हाथरस के सरदारों की सहायता से दिल्ली और मथुरा, आगरा और धौलपुर के बीच शाही मार्ग को लगभग बन्द कर दिया था।
मुग़लों के विरुद्ध युद्ध करते हुए चूड़ामन कभी पकड़ा नहीं गया, ना पूरी तरह परास्त हुआ। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया था। उसके पास 10,000 योद्धाओं–बन्दूकचियों, घुड़सवारों और पैदल की सेना थी। सन् 1704 में उसने सिनसिनी पर फिर अधिकार कर लिया, सन् 1705 में आगरा के फ़ौजदार मुख़्तारख़ाँ के आक्रमण करने पर वह सिनसिनी छोड़कर अपना प्रधान शिविर थून ले गया। वहाँ उसने बहुत मज़बूत दुर्ग बनवाया। औरंगज़ेब की मृत्यु औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद चूड़ामन के लिए यह संघर्ष सरल रहा। औरंगज़ेब के अयोग्य पुत्रों में उत्तराधिकार के युद्ध में चूड़ामन विजेता के साथ था। यह युद्ध thirteen जून, 1707 को गर्मियों में आगरा के दक्षिण में जाजौ में हुआ। आज़म हार गया; उसे और उसके पुत्र को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मुअज़्ज़्म 'शाह आलम प्रथम' के रूप में राजगद्दी पर बैठा। आज़म और मुअज़्ज़्म की सेनाओं की जाजौ में मुठभेड़ हुई, चूड़ामन अपने सैनिकों के साथ युद्ध का रूख़ देखता रहा और आक्रमण के लिए मौक़े की तलाश करता रहा। पहले उसने मुअज़्ज़्म के शिविर को लूटा। जब उसने देखा कि आज़म हारने लगा है तो मौक़े का फ़ायदा उठाकर वह भी उस पर टूट पड़ा। इस लूट के फलस्वरूप चूड़ामन बहुत धनी बन गया। मुग़लों की नक़दी, सोना, अमूल्य, रत्नजटित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगे।
इस धन के कारण वह जीवन-भर आर्थिक चिन्ताओं के बिलकुल मुक्त रहा। इस विपुल सम्पत्ति का कुछ भाग सन् 1721 में चूड़ामन की आत्महत्या के पश्चात् ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल के ख़ज़ानों में भी पहुँचा। अब चूड़ामन अपने सैनिकों को वेतन दे सकता था, अपने विरोधियों को धन देकर अपने पक्ष में कर सकता था और आवश्यकतानुसार क़िले बनवा सकता था। थून का दुर्ग इसी धन से बनवाया और सुसज्जित किया गया। जाजौ के युद्ध में सिनसिनवारों ने जो सहायता दी थी, उसके उपलक्ष्य में उन्हें भी सम्राट की ओर से इनाम मिले। बहादुरशाह ने चूड़ामन को 1,500 ज़ात और five hundred घुड़सवार का मनसब प्रदान किया। विद्रोही को सरकारी कर्मचारी वर्ग में स्थान मिल गया। चूड़ामन बहुत ही पहुँचा हुआ अवसरवादी था; शाही सेनाध्यक्ष के अपने नए पद पर उसने मुग़ल सम्राट की निष्ठापूर्वक सेवा की। वह सन् 1710-11 में सिखों के विरुद्ध अभियान में मुग़ल सम्राट के साथ गया और 27 फ़रवरी, 1712 को जब लाहौर में बहादुरशाह की मृत्यु हुई, तब चूड़ामन वहीं था।
सिखों के विरुद्ध अभियान में चूड़ामन दिल से साथ नहीं था। सिखों में भी बहुत से लोग, भले ही वे नानक के धर्म को मानते थे, उसी जैसे जाट थे। यद्यपि बहादुरशाह इतिहास पर अपनी कोई उल्लेखनीय छाप नहीं छोड़ पाया, फिर भी उसने अपने छोटे-से राज्य-सिंहासन की मर्यादा को कलंकित नहीं किया। उसके सौम्य स्वभाव, डाँवाडोल चित्त और दीर्घ-कालीन अनिश्चय के फलस्वरूप स्थिति जैसे-तैसे घिसटती रहीं। सम्राट का शासन वैसे ही चलता रहा जैसे उसके पिता के समय चलता था, परन्तु शनैः-शनैः साम्राज्य के महान् स्तम्भ लुप्त होते और ह्रास आरम्भ हो गया। बहादुरशाह से न लोग डरते थे, न उसका आदर करते थे, फिर भी लोग उसे मानते थे। उसके बाद जो बादशाह आए, उनको तो महत्त्वाकांक्षी सरदार केवल अपने हाथों की कठपुतली बनाए रहे। बहादुरशाह की मृत्यु लाहौर में सम्राट बहादुरशाह की मृत्यु के समय उसके चारों पुत्र उसके पास ही थे। उत्तराधिकार के लिए युद्ध तो होना ही था। जहाँदारशाह ने अपने तीन भाईयों को मार डाला और स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया। उसे लालकुमारी या लालकँवर नाम की एक रखैल के प्रेमी के रूप में स्मरण किया जाता है। यह लालकँवर स्वयं को दूसरी नूरजहाँ समझती थी। ऐसे पतित एवं कपटपूर्ण वातावरण में चूड़ामन जैसे व्यक्ति को चैन कहाँ मिल सकता था। मौक़ा मिलते ही वह राज-दरबार को छोड़कर अपने लोगों और अपनी जागीर की देखभाल करने के लिए आ गया। जब फ़र्रूख़सियर जहाँदारशाह को चुनौती देने के लिए दिल्ली आ पहुँचा, तब जहाँदारशाह ने सिनसिनवारों से सहायता माँगी। इस समय तक चूड़ामन यमुना के पश्चिमी तट पर रहने वाले जाटों तथा अन्य हिन्दू लोगों का वास्तविक शासक बन चुका था। दिल्ली से लेकर चम्बल तक उसका क्षेत्र था और उसके रूख़ पर ही यह बात निर्भर करती थीं कि हिन्दु्स्तान के सिंहासन के किसी उम्मीदवार के प्रति इस क्षेत्र की ग्रामीण जनता का व्यवहार मित्रतापूर्ण हो या शत्रुतापूर्ण। जहाँदारशाह के अनुरोध पर चूड़ामन अपने अनुयायियों की एक बड़ी सेना लेकर आगरा तक बढ़ गया। जहाँदारशाह ने उसे एक पोशाक भेंट की और उसे उचित सम्मान दिया। राज-सिंहासन के दावेदार दो निकृष्ट पुरुषों की सेनाओं में 10 जनवरी, 1913 को युद्ध हुआ। चूड़ामन ने आनन-फ़ानन में, दोनों पक्षों को बारी-बारी से लूटकर दोनों का ही बोझ हल्का कर दिया और उसके बाद वह थून लौट गया। कुछ ही समय बाद गला घोंटकर जहाँदारशाह की हत्या कर दी गई और फ़र्रूख़सियर सम्राट बना। शाही मुख्य मार्ग का कार्यकारी अफ़सर (शाहराह) वास्तविक शक्ति दो सैयद बन्धुओं के हाथों में रहीं। सैयद अब्दुल्ला बज़ीर बना और हुसैन अली प्रधान सेनापति। छबीलाराम को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया।
उसने चूड़ामन की हलचलों की रोकथाम करने के लिए कुछ चालें चलीं, परन्तु उसे सफलता न मिली। सूबेदार के ऊपर आगरा का राज्यपाल था– शम्सुद्दौला, जो 'ख़ान-ए-दौरां' की भव्य राजकीय उपाधि से विभूषित था। वह चतुर एवं दूरदर्शी था। अपने सूबेदार छबीलाराम के मार्ग का अनुसरण करने की उसकी ज़रा भी इच्छा नहीं थीं। शम्सुद्दौला इस दुर्जय जाट से विरोध पालकर अपनी प्रतिष्ठा गँवाना नहीं चाहता था; अतः उसने चूड़ामन से मैत्री की चर्चा चलाई। चूड़ामन ने फ़र्रूख़सियर की सेना और सामान को लूटा था, वह इतना समझदार तो था कि नए सम्राट को व्यर्थ ही न खिझाता रहे। 'ख़ान-ए-दौरां' ने सम्राट से चूड़ामन को क्षमा दिलवा दी और उसे दिल्ली आने का निमन्त्रण भिजवाया। एक बार फिर चूड़ामन ने अपने 4,000 घुड़सवारों को लेकर दिल्ली को कूच किया और बड़फूला (बारहपुला) से उसे राजोचित सम्मान के साथ दिल्ली ले जाया गया। स्वयं 'ख़ान-ए-दौरां' उसे दीवान-ए-ख़ास में ले गया और सम्राट ने उसे दिल्ली के निकट से लेकर चम्बल के घाट तक शाही मुख्य मार्ग का कार्यकारी अफ़सर (शाहराह) नियुक्त कर दिया। चूड़ामन के पद के इस परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए प्रोफ़ेसर क़ानून गों ने लिखा है- 'एक भेड़िए को भेड़ो के रेबड़ का रखवाला बना दिया गया ।"[1] इस प्रकार आख़िरकार चूड़ामन को शाही अनुमोदन की छाप मिल ही गई। उसे यह अधिकार था कि जो क्षेत्र उसकी देख-रेख में छोड़ा गया है, उस पर आने-जाने वाले लोगों पर वह पथ-कर लगा सके। पहले जिस उत्साह से वह मुग़लों के काफ़िलों को लूटा करता था, उसी उत्साह से अब वह पथ-कर वसूल करने लगा। चूड़ामन की धींगा-मुश्ती की शिकायतें दिल्ली पहुँची, परन्तु अशक्त सम्राट उसकी रोक-थाम करने या उसे दंड देने के लिए कुछ भी नहीं कर सका। इसके अतिरिक्त, सैयद बन्धुओं के साथ मिलकर चूड़ामन ने 'ख़ान-ए-दौरां' तथा सैयद बन्धुओं में विद्यमान मतभेदों से भी लाभ उठाया। फ़र्रूख़सियर को राज-सिंहासन सैयद बन्धुओं की कृपा से मिला था, फिर भी वह उनके विरुद्ध षडयन्त्र करता रहता था। उसे मालूम था कि सैयद बन्धु जयपुर के राजा से ख़ुश नहीं है, अतः उसने सैयदों की पीठ-पीछे जयपुर के सवाई जयसिंह से चूड़ामन के थून-गढ़ पर आक्रमण करने को कहा।
कछवाहों और सिनसिनवारों के बीच ख़ून की नदियाँ बह चुकी थी। औरंगजेब ने जाटों को दबाने के लिए राजा विशनसिंह का इस्तेमाल किया था। अब जयसिंह को इस काम के लिए रखा गया था। उसे भरपूर मात्रा में जन, धन तथा शस्त्रास्त्र दिए गए। कोटा और बूँदी के राजाओं को भी चूड़ामन से शिकायतें थीं, अतः उन्होंने जयसिंह का साथ दिया। चूड़ामन के भेदिए दिल्ली में थे और उसके विनाश की जो योजनाएँ बन रही थीं, उनकी सूचना वे उसे देते रहते थे। उसने जयसिंह के मुक़ाबले के लिए एक लम्बे युद्ध की तैयारी की। चूड़ामन ने इतना अनाज, नमक, घी, तम्बाकू, कपड़ा और ईंधन इकट्ठा कर लिया कि वह बीस वर्ष के लिए पर्याप्त रहे। जिन लोगों को लड़ाई में भाग नहीं लेना था, उन सबको उसने क़िले से बाहर भेज दिया, जिससे रसद का अनावश्यक व्यय न हो। क़िले का घेरा बीस महीने तक पड़ा रहा और उसका निर्णायक परिणाम कुछ भी न निकला। दिल्ली दरबार में तूरानी और ईरानी गुटों के मध्य चले षड्यन्त्र चूड़ामन के लिए वरदान रहे। जाटों ने घेरा डालने वालों को कभी चैन से न बैठने दिया। थून का इलाक़ा ग्रीष्म ऋतु में तो गरमी और धूल का खौलता कड़ाह बन जाता था और वर्षा ऋतु में बिलकुल दलदल। वह सैनिक गतिरोध दोनों ही पक्षों को पसन्द नहीं था। चूड़ामन ने जयसिंह को लाँघकर सैयद बन्धुओं से समझौते की बात चलाई और वह सम्राट को पचास लाख रूपए भेंट करने को राजी हो गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सिनसिनवारों ने कितनी विपुल धन-राशि एकत्र कर ली थी। सम्राट ने इस प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार कर लिया। थून के घेरे पर शाही ख़जाने के दो करोड़ रूपए ख़र्च हो चुके थे; प्राणों और प्रतिष्ठा की जो हानि हुई, वह इसके अतिरिक्त थी। जयसिंह को घेरा उठा लेने का आदेश दे दिया गया। प्रकटतः क्षुब्ध, पर मन-ही-मन प्रसन्न जयसिंह थून से वापस लौट गया। सैयद बन्धु, फ़र्रूख़सियर से तंग आ गए थे। उन्होंने उससे पिंड छुड़ाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने उसकी हत्या करवा दी। चूड़ामन छाया की भाँति सैयद बन्धुओं के साथ लगा रहा, जब फ़र्रूख़सियर को अपदस्थ किया गया, तब वह हुसैनअली की सेना के साथ था। बाद में वह उसके साथ सम्राट-पद के एक नक़ली दावेदार नेकूसियर के विरुद्ध अभियान में आगरा गया। नेकूसियर को सैयद बन्घुओं के शत्रुओं ने सम्राट घोषित कर दिया था। सैयद बन्धुओं ने चूड़ामन को 'राजा' की उपाधि देने का वायदा किया था, पर अपने वायदे को पूरा करने के लिए सैयद बन्धु जीवित ही न रहे, क्योंकि शीघ्र ही उनकी हत्या कर दी गई। ठीक समय पर चूड़ामन ने पासा पलटा और वह नए सम्राट मुहम्मदशाह के साथ मिल गया। मुहम्मदशाह ने जाट-सरदार को बड़े पारितोषिक दिए, जिन्हें उसने स्वीकार कर लिया। परन्तु सन् 1720 में होडल की लड़ाई में वह सैयद अब्दुल्ला सम्राट के शिविरों को लूटने का प्रलोभन त्याग न सका। चूड़ामन ने पहले सम्राट के और उसके बाद अब्दुल्ला के शिविर को लूटा। इस लूट में उसके हाथ साठ लाख रूपए का माल लगा, जिसने थून के घेरे में हुए नुक़सान की भरपाई हो गई। अब शाहराह चूड़ामन एक स्वाधीन राजा की भाँति व्यवहार एवं आचरण करने लगा। आमेर को दबाए रखने के लिए उसने जोधपुर के अजीतसिंह राठौर से मैत्री कर ली। उसने बुन्देलों की भी सहायता की। परन्तु उसकी लूट-खसोट, उसका निरन्तर पक्ष-परिवर्तन, उसकी निष्ठाहीनता और उसकी अवसरवादिता उसके उन कुछ घनिष्ठ कुटुम्बियों के लिए असह्य होती जा रहीं थीं, जिनके दावों और हितों की वह अवहेलना कर रहा था। बदनसिंह और रूप सिंह अपने भाई भावसिंह की मृत्यु के पश्चात् चूड़ामन ने अपने दो भतीजों-बदनसिंह और रूप सिंह को पाला था।
चूड़ामन थून में पदासीन था और बदनसिंह सिनसिनी में रहता था। बदनसिंह को अपने चाचा के तौर-तरीक़े और चालें बिलकुल नापसन्द थीं। उसका विचार था कि समय आ गया है अब जाटों को विद्रोहियों की भाँति नहीं, अपितु शासकों की भाँति रहना चाहिए। चूड़ामन के पास धन था, राज्य-क्षेत्र था और मुग़लों की दी हुई उपाधि भी थीं। इस समय जाट दो गुटों में बँट गये थे। चूड़ामन और उसके असंयत पुत्र मोखमसिंह के पक्ष में थे-सरदार खेमकरण सोघरिया, विजयराज गड़ासिया, छतरपुर का फ़ौजदार फ़तहसिंह और ठाकुर तुलाराम, ये सब पुरानी पीढ़ी के लोग थे। बदनसिंह को फ़ौजदार अनूपसिंह, राजाराम के पुत्र फ़तहसिंह, गैरू और हलेना के ठाकुरों तथा अन्य जातियों के मुखियाओं का समर्थन प्राप्त था। बदनसिंह ने चूड़ामन के जानी दुश्मन, जयपुर के राजा जयसिंह से भी सम्पर्क बनाया हुआ था। अपने क्रोधी पुत्र मोखमसिंह के कहने पर चूड़ामन अपने जीवन की सबसे भयंकर ग़लती की– एक बेकार सा बहाना लेकर उसने बदनसिंह और रूपसिंह को बन्दी बना लिया और उन्हें थून में ला रखा। यह ख़बर जाट-प्रदेश में दावानल की भाँति फैली। सभी जाट-सरदारों ने चूड़ामन पर दबाब डाला कि वह अपने भतीजों को क़ैद से छोड़ दे।
उन्हें छोड़ने के लिए चूड़ामन ने यह शर्त रखी कि बदनसिंह उसका और उसकी नीतियों का विरोध न करे। बदनसिंह इसके लिए क़तई तैयार नहीं था। एक इतिहासकार का कथन है कि एक स्थिति ऐसी आई कि जब चूड़ामन ने बदनसिंह को ख़त्म ही कर देने का विचार किया, परन्तु अभी तक इसका कोई प्रमाण सामने नहीं आया। कहा जाता है कि प्रमुख जाट-सरदारों ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि बदनसिंह को क़ैद से छोड़ा न गया, तो वे मोखमसिंह के विवाह में सम्मिलित नहीं होंगे। इस धमकी का असर हुआ। अन्त में चूड़ामन ने भावी विपत्ति को भाँप लिया और बदनसिंह तथा रूपसिंह को क़ैद से छोड़ दिया। बदनसिंह पहले तो आगरा गया और उसके बाद जयसिंह के पास जयपुर चला गया। चूड़ामन ने जो कुछ भी उपलब्ध किया, निर्माण किया, क़िलेबन्दी की और जीता, वह सब बहुत जल्दी नष्ट-भ्रष्ट हो जाना था- वह भी अन्य किसी के हाथों नहीं, अपितु जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के हाथों और वह भी चूड़ामन के अपने ही भतीजे की सहायता से। इस बार जयसिंह ने काम को पूरा करके ही छोड़ा। उसने थून में अपनी बेइज़्ज़ती का बदला ले लिया। बदनसिंह के मार्ग-दर्शन में आती हुई आमेर की सेनाओं के थून पहुँचने से पहले ही चूड़ामन ने आत्महत्या कर ली। चूड़ामन का एक सम्बन्धी निःसन्तान मर गया था। वह एक धनी व्यापारी था। उसके भाई-बन्धवों ने चूड़ामन के बड़े पुत्र मोखमसिंह को बुलवाया, उसे दिवंगत सम्बन्धी की सारी ज़मींदारी का उसे प्रधान बना दिया और उसकी सब चीज़ें उसे सौंप दीं। चूड़ामन के द्वितीय पुत्र जुलकरणसिंह ने अपने भाई से कहा– 'मुझे भी इन चीज़ों में से हिस्सा दो और हिस्सेदार मानो।' इस पर काफ़ी कहा-सुनी हो गई और मोखमसिंह लड़ने-मरने को तैयार हो गया। जुलकरण भी झगड़ने पर उतारू था, उसने अपने आदमी इकट्ठे किए और अपने भाई पर हमला कर दिया। बड़े-बूढ़ों ने चूड़ामन को ख़बर भेजी कि उसके बेटे आपस में लड़ रहे हैं। चूड़ामन ने मोखम सिंह को समझाना चाहा, तो उसने गाली-गलौज शुरू कर दी और प्रकट कर दिया कि वह अपने भाई के साथ-साथ बाप से भी लड़ने के तैयार है। इस पर चूड़ामन आपे से बाहर हो गया और झल्लाकार उसने वह विष खा लिया, जिसें वह सदा अपने पास रखता था और फिर वह घोड़े पर चढ़कर एक वीरान बाग़ में पहुँचकर एक पेड़ के नीचे लेट गया और मर गया।
उसे खोजने के लिए आदमी भेजे गए और उन्होंने उसका शव ढूँढ़ निकाला। कोई भी शत्रु उसे जिस विष को खाने के लिए विवश नहीं कर पाया था, वही अब उसके एक मूर्ख पुत्र ने उसे खिला दिया। इस प्रकार चूड़ामन सन् 1721 में फ़रवरी मास में परलोक सिधारा उसके लिए न किसी ने गीत गाए, न किसी ने आँसू बहाए। अगले वर्ष थून-गढ़ ले लिया गया। मोखनसिंह भागकर जोधपुर चला गया और वहाँ अपने पिता के मित्र अजीतसिंह राठौर से शरण ली। जयसिंह के पास 14,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सैनिक थे।
उन्हें छोड़ने के लिए चूड़ामन ने यह शर्त रखी कि बदनसिंह उसका और उसकी नीतियों का विरोध न करे। बदनसिंह इसके लिए क़तई तैयार नहीं था। एक इतिहासकार का कथन है कि एक स्थिति ऐसी आई कि जब चूड़ामन ने बदनसिंह को ख़त्म ही कर देने का विचार किया, परन्तु अभी तक इसका कोई प्रमाण सामने नहीं आया। कहा जाता है कि प्रमुख जाट-सरदारों ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि बदनसिंह को क़ैद से छोड़ा न गया, तो वे मोखमसिंह के विवाह में सम्मिलित नहीं होंगे। इस धमकी का असर हुआ। अन्त में चूड़ामन ने भावी विपत्ति को भाँप लिया और बदनसिंह तथा रूपसिंह को क़ैद से छोड़ दिया। बदनसिंह पहले तो आगरा गया और उसके बाद जयसिंह के पास जयपुर चला गया। चूड़ामन ने जो कुछ भी उपलब्ध किया, निर्माण किया, क़िलेबन्दी की और जीता, वह सब बहुत जल्दी नष्ट-भ्रष्ट हो जाना था- वह भी अन्य किसी के हाथों नहीं, अपितु जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के हाथों और वह भी चूड़ामन के अपने ही भतीजे की सहायता से। इस बार जयसिंह ने काम को पूरा करके ही छोड़ा। उसने थून में अपनी बेइज़्ज़ती का बदला ले लिया। बदनसिंह के मार्ग-दर्शन में आती हुई आमेर की सेनाओं के थून पहुँचने से पहले ही चूड़ामन ने आत्महत्या कर ली। चूड़ामन का एक सम्बन्धी निःसन्तान मर गया था। वह एक धनी व्यापारी था। उसके भाई-बन्धवों ने चूड़ामन के बड़े पुत्र मोखमसिंह को बुलवाया, उसे दिवंगत सम्बन्धी की सारी ज़मींदारी का उसे प्रधान बना दिया और उसकी सब चीज़ें उसे सौंप दीं। चूड़ामन के द्वितीय पुत्र जुलकरणसिंह ने अपने भाई से कहा– 'मुझे भी इन चीज़ों में से हिस्सा दो और हिस्सेदार मानो।' इस पर काफ़ी कहा-सुनी हो गई और मोखमसिंह लड़ने-मरने को तैयार हो गया। जुलकरण भी झगड़ने पर उतारू था, उसने अपने आदमी इकट्ठे किए और अपने भाई पर हमला कर दिया। बड़े-बूढ़ों ने चूड़ामन को ख़बर भेजी कि उसके बेटे आपस में लड़ रहे हैं। चूड़ामन ने मोखम सिंह को समझाना चाहा, तो उसने गाली-गलौज शुरू कर दी और प्रकट कर दिया कि वह अपने भाई के साथ-साथ बाप से भी लड़ने के तैयार है। इस पर चूड़ामन आपे से बाहर हो गया और झल्लाकार उसने वह विष खा लिया, जिसें वह सदा अपने पास रखता था और फिर वह घोड़े पर चढ़कर एक वीरान बाग़ में पहुँचकर एक पेड़ के नीचे लेट गया और मर गया।
उसे खोजने के लिए आदमी भेजे गए और उन्होंने उसका शव ढूँढ़ निकाला। कोई भी शत्रु उसे जिस विष को खाने के लिए विवश नहीं कर पाया था, वही अब उसके एक मूर्ख पुत्र ने उसे खिला दिया। इस प्रकार चूड़ामन सन् 1721 में फ़रवरी मास में परलोक सिधारा उसके लिए न किसी ने गीत गाए, न किसी ने आँसू बहाए। अगले वर्ष थून-गढ़ ले लिया गया। मोखनसिंह भागकर जोधपुर चला गया और वहाँ अपने पिता के मित्र अजीतसिंह राठौर से शरण ली। जयसिंह के पास 14,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सैनिक थे।
पहले तो थून के आस-पास खड़ी जंगल की अभेद्य पट्टी को काट डाला गया। बदन सिंह ने आक्रमण का संचालन किया, क्योंकि उसे इस क़िले के दुर्बल स्थानों का ज्ञान था। 18 नवम्बर, 1772 को थून का पतन हुआ। सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है– 'चूड़ामन ने जिन सैनिकों को एकत्र तथा संगठित किया था, उनमें से जो रणभूमि के हत्याकांड से बच पाए, उन्हें उनके घर भेज दिया गया और उन्हें विवश किया गया कि वे अपनी तलवारों को गलाकर हलों के फाल बनवाए। विजेता के आदेश से थून शहर को गधों से जुतवाया गया, जिससे वह ऐसा अभिशप्त प्रदेश बन जाए कि किसी राजवंश का केन्द्र-स्थान बनने के उपयुक्त न रहे। राजाराम और चूड़ामन के कार्य का उनके पीछे कोई निशान ही न बचा और उनके उत्तराधिकारी को हर चीज़ नींव से ही शुरू करनी पड़ी।'[2] डा. सतीशचन्द्र ने अपने विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ में उसे थोड़ा कम वर्णित किया है– 'यद्यपि जय सिंह जाटों की धृष्टता का दमन करने को बहुत ही लालायित था, फिर भी अपनी पहले की असफलता को ध्यान में रखते हुए उसने तब तक क़दम बढ़ाना स्वीकार नहीं किया, जब तक कि उसे आगरा का राज्यपाल न बना दिया गया। यह काम 1 सितंबर, 1772 का हो गया, और उसके बाद शीघ्र ही 14-15,000 सवारों की सेना लेकर जयसिंह ने दिल्ली से प्रस्थान किया। इस समय तक चूड़ामन की मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र मोखमसिंह जाटों का नेता बन गया था।[3] जयसिंह ने जाटों के गढ़ थून पर घेरा डाल दिया और बाक़ायदा जंगल को काटने और दुर्गरक्षक सेना को संख़्ती से घेरने का काम शुरू किया। दो सप्ताह इस प्रकार बीत गए। यह कह पाना कठिन है कि यह घेरा कितने दिन चलता, परन्तु जाटों में फूट पड़ गई। मोखमसिंह का चचेरा भाई बदनसिंह जयसिंह से आ मिला और उसने जाट रक्षा-पंक्तियों के दुर्बल स्थान उसे बता दिए। अब मोखमसिंह की स्थिति चिन्ताजनक हो गई। एक रात उसने मकानों को आग लगा दी, गोला-बारूद उड़ा दिया और जो भी कुछ नक़दी और आभूषण उसे मिल सके, उसे लेकर क़िले से भाग निकला और अजीतसिंह के पास चला गया। अजीतसिंह ने उसे शरण दी। अब विजेता बनकर जयसिंह ने गढ़ी में प्रवेश किया और उसे ढहवाकर भूमिसात कर दिया। घृणा के चिहृ के रूप में उसके वहाँ गधों से हल भी चलवाया। राजा-ए-राजेश्वर इस विजय के उपलक्ष्य में जयसिंह को 'राजा-ए-राजेश्वर' की उपाधि (ख़िताब) मिली। जाटों से क्या शर्ते तय हुई, इसका उल्लेख किसी समकालीन लेखक ने नहीं किया है।
जाटों की सरदारी बदनसिंह ने सँभाली और चूड़ामन की ज़मींदारी उसे प्राप्त हुई। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रमुख क़िले तो अवश्य नष्ट कर दिए गए, परन्तु चूड़ामन के परिवार को उस समूचे राज्य से वंचित नहीं किया गया, जिसे उन्होंने धीरे-धीरे जीतकर बनाया था। इसके बाद बदनसिंह विनयपूर्वक स्वयं को जयसिंह का अनुचर कहता रहा। परन्तु प्रकट है कि वह बढ़िया प्रशासक था और उसके सावधान नेतृत्व में भरतपुर का जाट-घराना अगली दो दशाब्दियों तक चुपचाप, निरन्तर शक्ति संचय करता गया। इस प्रकार जाट-शक्ति की वृद्धि पर यह व्याघात वास्तविक कम और आभासी अधिक था। थून और सिनिसिनी से सूरजमल एक विशाल एवं शक्तिशाली राज्य का सृजन करने वाला था।
नमस्कार आगे का इतिहास अगले आर्टिकल में -
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30/6/2020
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Jaat Nayak - Chudaman Jaat
Chudaman Singh Chudaman's father Brajraj had two wives - Indrakaur and Amritkaur. Both were from a modest landowner family. Chudaman's mother, Amritkaur was the daughter of Chaudhary Chandrasinh of Chikasana. He had two sons - Advaram and Bhavasingh. Both of them were also minor zamindars (landowners). Probably Chudaman may have hid in the ravaged areas of Deeg, Bayana and Chambal after the enemy had control over Sins ini. He used to loot with the guerrilla method of 'kill and run'. Chudaman had public support. Chudaman was loyal to himself. The Jat people lived hard lives. He neither wanted nor pity. Chudaman was a hard working and practical person. He made the Jats advanced and strong. For the first time in his time, the word 'Jat Shakti' came into vogue, under the leadership of Badansingh and Suraj Mal, Jat Shakti became a powerful force in Hindustan in the eighteenth century. Chudaman Singh committed suicide in 1721, when his brother's grandson Surajmal was fourteen years old. Chudaman's guerrilla combat force, Chudaman, possessed leadership qualities. He had prepared a strong guerrilla combat force. His policy was - to move with some cavalry rather than to sit in a castle or fortress, plan, resist, plan war, discipline and keep going continuously to open one front after another. Due to which enemies could not live comfortably. Due to lack of knowledge of routes and heavy equipment, the enemies lost their mobility and wandered in the jungles. The Sinsinavar Jats, with the help of the Mursan and Hathras chiefs, had almost closed the royal route between Delhi and Mathura, Agra and Dhaulpur.
Chudaman was never caught fighting against the Mughals, nor defeated completely. By the end of the seventeenth century his influence had greatly increased. He had 10,000 warriors - gunmen, horsemen and infantry. In 1704, he regained control over Cincini, and in 1705, after the invasion of Agra's Faujdar Mukhtarkhan, he left Sincinni and took his main camp to Thun. There he built a very strong fort. Aurangzeb's death After Aurangzeb's death, the struggle for Chudaman was simple. Among the unworthy sons of Aurangzeb, Chudaman was with the conqueror in the war of succession. The battle took place on the thirteen June, 1707, in the summer at Jajou, south of Agra. Azam was defeated; He and his son had to lose their lives. Muazzam as 'Shah Alam I' ascended the throne. Azam and Mu'azm's armies encounter in Jazou, Chudaman continues to be at war with his troops and looks for an opportunity to attack. First he looted the Muazzism camp. When he saw that Azam was losing, he also took advantage of the opportunity and broke down on him. Chudaman became very wealthy as a result of this loot. The Mughals had cash, gold, priceless jewelry, jewelery, weapons, horses, elephants and logistics.
Due to this wealth, he remained completely free from financial worries throughout his life. After the suicide of Chudaman in 1721, some part of this enormous wealth also reached the treasures of Thakur Badansingh and Maharaja Surajmal. Now Chudaman could pay his soldiers, give money to his opponents in his favor and get the fort built as needed. The fort of Thun was built and furnished with this wealth. They were also rewarded by the emperor for commemorating the assistance given by the Cincinnars in the Battle of Jazou. Bahadur Shah gave Chudaman a mansion of 1,500 zat and five hundred cavalry. The rebel found a place in the government staff. Chudaman was a very rushed opportunist; In his new post of Imperial Chief, he devotedly served the Mughal Emperor. He accompanied the Mughal emperor in a campaign against the Sikhs in 1710–11, and when Bahadur Shah died in Lahore on 27 February 1712, Chudaman was there.
Chudaman was not heartened in the campaign against the Sikhs. Many people among the Sikhs, even if they followed Nanak's religion, were Jats like him. Although Bahadur Shah could not leave a significant mark on history, he did not tarnish the dignity of his small kingdom. As a result of his mild nature, disheveled mind and long-term indecision, the situation continued to slide. The rule of the emperor continued as it did during the time of his father, but the great pillars of the empire were vanishing and began to decline. People were not afraid of Bahadur Shah, nor respected him, yet people believed him. After that the emperor, the ambitious chieftain, should only remain a puppet in his hands. Bahadur Shah's death At the time of Emperor Bahadur Shah's death in Lahore, he had four sons with him. There had to be a war for succession. Jahandarshah killed his three brothers and seated himself on the throne. She is remembered as the lover of a mistress named Lalkumari or Lalakanwar. This Lalkanwar considered himself as the second Nur Jahan. Where could a person like Chudaman get peace in such a fallen and tortuous environment. As soon as he got the chance, he left the court and came to take care of his people and his manor. When Farrukhsiyar came to Delhi to challenge Jahandarshah, Jahandarshah sought help from the Cincinnars. By this time, Chudaman had become the de facto ruler of the Jats and other Hindu people living on the west bank of the Yamuna. His area was from Delhi to Chambal and it was on his stand that whether the rural people of this region were friendly or hostile towards any candidate for the throne of India. At the request of Jahandarshah, Chudaman advanced to Agra with a large army of his followers. Jahandarshah presented him a dress and gave him due respect. On January 10, 1913, the armies of two infirm men contending for the throne fought. Chudaman hurriedly lightened the burden of the two by plundering the two sides in turn, and after that he returned to Thun. Shortly afterwards Jahandarshah was strangled to death and Farrukhsiyar became emperor. The imperial chief executive officer (Shahrah) was the real power in the hands of two Syed brothers. Syed Abdullah Bazir became the chief commander and Hussain Ali. Chhabilaram was appointed the Subedar of Agra.
He did some tricks to stop Chudaman's movements, but he did not succeed. Above the Subedar was the Governor of Agra - Shamsuddaula, who was conferred with the grand state title of 'Khan-e-Dauran'. He was smart and far-sighted. He had little desire to follow the path of his Subedar Chhabilaram. Shamsuddaula did not want to lose his reputation by opposing this dreaded Jat; So he started discussing friendship with Chudaman. Chudaman looted Farrukhsiyar's army and goods, he was smart enough not to make the new emperor vain. 'Khan-e-Dauran' asked the emperor to forgive Chudaman and sent him an invitation to come to Delhi. Once again, Chudaman traveled to Delhi with his 4,000 cavalrymen and was taken to Delhi with great accolades from Badfula (Barhapula). Khan-e-Dauran himself took him to Diwan-i-Khas and the emperor appointed him as the executive officer (shahrah) of the royal main road from near Delhi to Chambal's Ghat. Commenting on this change of Chudaman's post, Professor Kaun Gon wrote - 'A wolf was made a keeper of sheep's wounds. "[1] Thus Chudaman finally got the impression of royal approval. He was able to impose toll tax on the people who came to the area left in his care. Now with the enthusiasm with which he used to rob the Mughal convoys, now he collected the toll tax Chudaman's complaints of dhinga-mutti reached Delhi, but the infirm emperor could not do anything to restrain or punish him. In addition, Chudaman, together with the Syed brothers, called 'Khan-e-Dauran'. And also took advantage of the existing differences between the Syed brothers. Farrukhsiyar got the throne with the grace of Syed brothers, yet he kept plotting against them. He knew that the Syed brothers were not happy with the king of Jaipur, so he Behind the Sayyids, Sawai Jai Singh of Jaipur asked them to attack the Thun-Garh of Chudaman.
Rivers of blood had flowed between turtles and Cincinnars. Aurangzeb used King Vishan Singh to suppress the Jats. Now Jai Singh was hired for this task. He was given abundant amount of people, wealth and weapons. The kings of Kota and Bundi also had complaints with Chudaman, so they supported Jai Singh. Chudaman's spies were in Delhi and they kept informing him of the plans for its destruction. He prepared a long war to counter Jai Singh. Chudaman collected so much grain, salt, ghee, tobacco, cloth and fuel that it would be sufficient for twenty years. He sent all those who did not participate in the fight out of the fort, so that there is no unnecessary expenditure of logistics. The fortress encircled for twenty months and nothing came out of it. The conspiracy between the Turani and Iranian groups in the Delhi court was a boon for Chudaman. The Jats never let the besiegers sit comfortably. The area of Thun used to become a bitter gourd of heat and dust in the summer season and absolutely marshy in the rainy season. The military standoff did not like both sides. Chudaman, by leaping over Jaisingh, tried to negotiate a settlement with the Syed brothers and he agreed to offer the emperor fifty lakh rupees. From this, it can be estimated how much wealth the Cincinnavors had collected. The emperor immediately accepted this proposal. The royal treasury had spent two crores of rupees on the circle of Thun; The loss of life and reputation was in addition to this. Jaisingh was ordered to lift the circle. Apparently angry, but pleased Jai Singh returned from Thun. Syed Bandhu was fed up with Farrukhsiyar.
They decided to get rid of him. They got him murdered. Chudaman stayed with the Syed captives like a shadow, when Farrukhsiyar was overthrown, he was with Husainali's army. He later accompanied him to Agra in a campaign against a fake contender of the emperor. Necusier was declared Emperor by the enemies of Syed Banghu. The Syed brothers promised Chudaman the title of 'King', but the Syed brothers did not live to fulfill their promise, as they were soon killed. At the right time, Chudaman turned the dice and was reunited with the new emperor Muhammad Shah. Muhammad Shah gave large rewards to the Jat-Sardar, which he accepted. But in the Battle of Hodal in 1720, he could not give up the temptation to loot the camps of Syed Abdullah Emperor. Chudaman looted the Emperor's camp first and then Abdullah's camp. In this robbery, he got a goods worth six lakh rupees, which made up for the damage done in the circle of Thun. Now Shahrah Chudaman behaved and behaved like an independent king. He befriended Ajitsingh Rathore of Jodhpur to keep Amer under control. He also assisted the Bundelas. But his plunder, his constant turnaround, his disloyalty and his opportunism were becoming unbearable for some of his close relatives, whose claims and interests he was disregarding. Badansingh and Roop Singh After the death of his brother Bhavsingh, Chudaman raised two of his nephews - Badansingh and Roop Singh.
They decided to get rid of him. They got him murdered. Chudaman stayed with the Syed captives like a shadow, when Farrukhsiyar was overthrown, he was with Husainali's army. He later accompanied him to Agra in a campaign against a fake contender of the emperor. Necusier was declared Emperor by the enemies of Syed Banghu. The Syed brothers promised Chudaman the title of 'King', but the Syed brothers did not live to fulfill their promise, as they were soon killed. At the right time, Chudaman turned the dice and was reunited with the new emperor Muhammad Shah. Muhammad Shah gave large rewards to the Jat-Sardar, which he accepted. But in the Battle of Hodal in 1720, he could not give up the temptation to loot the camps of Syed Abdullah Emperor. Chudaman looted the Emperor's camp first and then Abdullah's camp. In this robbery, he got a goods worth six lakh rupees, which made up for the damage done in the circle of Thun. Now Shahrah Chudaman behaved and behaved like an independent king. He befriended Ajitsingh Rathore of Jodhpur to keep Amer under control. He also assisted the Bundelas. But his plunder, his constant turnaround, his disloyalty and his opportunism were becoming unbearable for some of his close relatives, whose claims and interests he was disregarding. Badansingh and Roop Singh After the death of his brother Bhavsingh, Chudaman raised two of his nephews - Badansingh and Roop Singh.
Chudaman lived in Thun and Badansingh lived in Cincinnati. Badansingh was disliked by his uncle's mannerisms and tricks. He thought that the time had come now that the Jats should not be like rebels, but like rulers. Chudaman had wealth, territory and also had the title of Mughals. At this time, the Jats were divided into two groups. Chudaman and his unaccompanied son Mokhamsingh were in favor - Sardar Khemkaran Sogharia, Vijayaraja Gadasiya, Faujdar Fathasinh of Chhatarpur and Thakur Tularam, all of whom were people of the older generation. Badansingh was supported by Faujdar Anoopsingh, Fatehsinh, son of Rajaram, Thakurs of Garu and Helena and heads of other castes. Badansingh had also made contact with Raja Jai Singh of Jaipur, a known enemy of Chudaman. Chudaman committed the worst mistake of his life at the behest of his angry son Mokhamsingh - taking a useless excuse and imprisoning Badansingh and Roop Singh and bringing them to Thun. This news spread like the forest of Jat. All the Jat-chieftains pressed Chudaman to release his nephews from prison. To release them, Chudaman put a condition that Badansingh should not oppose him and his policies. Badansingh was not ready for this. A historian's statement is that a situation came when Chudaman thought of destroying Badansingh, but no evidence of this has yet come to light. It is said that the prominent Jat-chieftains had made it clear that if Badansingh was not released from prison, he would not attend Mokhamsingh's marriage. This threat took effect. In the end, Chudaman realized the future calamity and left Badansingh and Roop Singh imprisoned. Badansingh first went to Agra and then to Jaipur near Jaisingh. Chudaman built whatever he had available, built the fortification and won, all of that was to be destroyed very quickly - corrupted not by anyone else, but by the hands of King Sawai Jai Singh of Jaipur, and that too by Chudaman With the help of nephew. This time Jai Singh left the work. He avenges his dishonor in Thun. Chudaman committed suicide even before Amar's forces reached Thun under the guidance of Badansingh. One of Chudaman's relatives died childless. He was a wealthy businessman. His brothers-in-law called Chudaman's eldest son Mokhamsingh, made him head of all the land of the deceased relative and handed over all his things to him. Chulaman's second son, Zulkaran Singh, told his brother - 'Give me a part of these things and consider them as partners.' There was enough talk on this and Mokhamsingh agreed to fight and die. Julkaran was also ready to fight, he gathered his men and attacked his brother. The elders sent news to Chudaman that his sons were fighting among themselves. When Chudaman wanted to convince Mokham Singh, he started abusing and revealed that he was ready to fight his father as well as the father. At this, Chudaman got out of control and, furiously, ate the poison he always kept with him and then he climbed on a horse and reached a deserted garden, lay under a tree and died. Men were sent to search for him and they found his body. The poison that no enemy had forced him to eat, now a foolish son fed him. In this way, in the month of February in Chudaman, 1721, no one sang songs for him, nor did anyone shed tears for him. The next year Thun-Garh was taken. Mokhan Singh fled to Jodhpur and took refuge from his father's friend Ajitsingh Rathore. Jaisingh had 14,000 cavalry and 50,000 foot soldiers.
First the impenetrable strip of forest standing around Thun was cut. Badan Singh conducted the attack, as he had knowledge of the weak places of this fort. On 18 November 1772, Thun fell. Sir Jadunath Sarkar has written - 'Of the soldiers who were collected and organized by Chudaman, who survived the massacre of the battlefield, they were sent to their homes and were forced to stall their swords and make plowshares. . The city of Thun was conquered by donkeys by the order of the conqueror, so that it would become such a cursed state that it would not be fit to be the center of any dynasty. There was no trace of Rajaram and Chudaman's work left behind by him and his successor had to start everything from the foundation. Dr. Satishchandra has described him in his scholarly treatise as a little -" Although Jai Singh Jats Was very keen to suppress the audacity of the Indian, yet in view of his earlier failure he did not accept to step up until he was made Governor of Agra. This work was completed on 1 September 1772, and shortly thereafter Jaisingh left Delhi with an army of 14–15,000 cavalry. By this time Chudaman had died and his son Mokhamsingh became the leader of the Jats. [3] Jai Singh laid siege to the Jat stronghold Thun and began the task of cutting down the Baqaida forest and sacking the malicious army. Two weeks passed like this. It is difficult to say how many days this circle was going on, but the Jats got divided. Mokham Singh's cousin Badansingh met Jaisingh and told him the weak places of Jat defense lines. Now Mokhamsingh's situation became worrying. One night he set the houses on fire, blew ammunition and ran away from the fort with whatever cash and jewelery he could find and went to Ajitsingh. Ajitsingh gave him shelter. Now, being victorious, Jai Singh entered Garhi and demolished it and made it to Bhumisat. As a sign of hatred, he also got a solution with donkeys. Raja-e-Rajeshwar Jaisingh received the title (title) of 'Raja-e-Rajeshwar' to commemorate this victory. No contemporary writer has mentioned what conditions were fixed by the Jats.
Badansingh, the chief of the Jats, took charge and got the zamindari of Chudaman. It can be inferred that the main fortress must have been destroyed, but Chudaman's family was not deprived of the entire kingdom which he gradually conquered. After this, Badansingh humbly called himself a follower of Jai Singh. But it is clear that he was a good administrator and under his careful leadership, the Jat-gharana of Bharatpur continued to accumulate power quietly, continuously for the next two decades. Thus on the rise of Jat-Shakti this disturbance was real less and more virtual. Surajmal was the creator of a huge and powerful kingdom from Thun and Sinsinni.
Hello, further history in the next article-
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