27/6/2020


                                                          

गोकुला जाट- भारतीय इतिहास के गौरवशाली  नायक


विश्व की सभ्यताओं तथा संस्कृतियों के सृजन तथा विकास में भारत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्राचीनतम देशों में होने के कारण यह देश विश्व की अनेक घुमक्कड़ जातियों, कबीलों तथा काफिलों की शरणस्थली रहा है। यूनानी, ईरानी, शक, हूण, पठान तथा मुगल समय-समय पर भारत में घुसपैठ करते रहे हैं, परन्तु वे सभी शीघ्र ही या तो यहां के जनजीवन में समरस हो गये या पराजित होकर भाग गये। 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल बाबर भी भारत में एक विदेशी, आक्रमणकारी तथा लुटेरे के रूप में आया था। उसने मजहबी उन्माद तथा जिहाद की भावना से इस देश के कुछ भाग में लूटमार की, परन्तु वह यहां के जनजीवन को अस्त-व्यस्त न कर सका।
यदि केवल बाबर से लेकर औरंगजेब (1526-1707 ई.) के काल की कुछ प्रमुख घटनाओं का विश्लेषण करें तो सहज ही जानकारी हो जाएगी कि उस समय यहां के प्रमुख हिन्दू समाज ने उसका तीव्र प्रतिकार तथा संघर्ष किया था। यह संघर्ष राजनीतिक तथा सांस्कृतिक, दोनों ही धरातलों पर था और इसी कारण मुगल आक्रमणकारी न तो इस देश को दारुल हरब से दारुल इस्लाम ही बना सके और न ही यहां के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर सके। हिन्दुओं का महानतम संघर्ष तथा प्रतिकार मतान्ध तथा क्रूर अत्याचारी औरंगजेब के काल में हुआ। यह प्रतिकार उत्तर तथा दक्षिण भारत दोनों ही जगह हुआ। विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध किये गए हिन्दू अस्मिता के इस संघर्ष और प्रतिकार के नायकों में से एक हैं वीरवर गोकुल सिंह (लोग उन्हें गोकला जाट नाम से जानते हैं), जिन्होंने अपनी संगठन क्षमता, साहस और अदम्य पराक्रम के बल पर औरंगजेब जैसे क्रूर शासक की चूलें हिलाकर रख दीं और जिनका 1 जनवरी को बलिदान दिवस था।
ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म सिनसिनी में हुआ था और वह जाट साम्राज्य को नयी ऊँचाइयाँ देने वाले देने वाले इतिहास प्रसिद्द महाराजा सूरजमल के पूर्वज थे। उनके पिता का नाम मादू था, जिनके चार पुत्र थे-सिंधुराज, ओला, झमन और समन। मादू का यही द्वितीय पुत्र ओला बाद में हिन्दू प्रतिकार के प्रतीक गोकुल सिंह उर्फ़ गोकुला जाट के नाम से जाना गया। सन 1650-51 के आसपास मादू और उनके चाचा सिंघा ने मुगल शासन से सहायता प्राप्त राजपूत राजा जयसिंह के विरुद्ध भीषण संघर्ष किया जिसमें मादू के बड़े बेटे सिंधुराज की मृत्यु हो गयी और सिंघा अन्य जाट इसके बाद परिवारों के साथ यमुना के पार गिरसा नामक किले की तरफ चला गया। मादू की विरासत को सँभालने का उत्तरदायित्व गोकुला जाट पर आ पड़ा था और वो भी सिंघा के साथ इसी किले में आ गए। सन 1660-70 के दशक में वो तिलपत नामक इलाके के प्रभावशाली ज़मींदार के रूप में माने जाने लगे। सच तो ये है कि गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे और तिलपत की गढ़ी उनका केन्द्र थी ।
वो सन 1666 का समय था, जब इस्लामिक राक्षस औरंगजेब के अत्याचारोँ से हिन्दू जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटकर उन्हें भ्रस्ट कर जबरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा था। औरंगजेब और उसके सैनिक पागल हाथी की तरह हिन्दू जनता को मथते हुए बढते जा रहे थे। हिंदुओं पर सिर्फ इसलिए अत्याचार किए जाते थे क्योंकि वे हिन्दू थे। औरंगजेब अपने ही जैसे क्रूर लोगों को अपनी सेना में उच्च पद देकर हिंदुस्तान को दारुल हरब से दारुल इस्लाम में तब्दील करने के अपने सपने की तरफ तेजी से बढता जा रहा था। मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे थे परन्तु जैसा कि “दलपत विलास” के लेखक दलपत सिंह ने स्पष्ट कहा है कि राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके। ऐसे में असहिष्णु धार्मिक नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया था और विद्रोह का झंडा फहराया था। उनके बाद उनका स्थान उदय सिंह तथा गोकुला जाट ने ग्रहण किया। आज मथुरा, वृन्दावन के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल और केवल ‘गोकुल सिंह’ को है।
इतिहास गवाह है कि मुसलमानों की धर्मान्धतापूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं क्योंकि दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है। वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। सन 1678 के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला। अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष गोकुला जाट के क्षेत्र के पास एक नई छावनी स्थापित की थी और सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था। सरदार गोकुला जाट के आह्वान पर जब किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया, तब मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए और अंततः संघर्ष शुरू हो गयाl इसी समय औरंगजेब का मुगलिया शैतानी फरमान आया – “काफ़िरों के मन्दिर गिरा दिए जाएं”। फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गयाl कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहरों को तहस-नहस कर दिया गया। सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे और साथ ही दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए शाही घुडसवार। अब्दुन्नवी और उसके सैनिक हिन्दू वेश में नगर मेँ घूमते थे और मौका पाकर औरतों का अपहरण करके भाग जाते थे। अब जुल्म की इंतेहा हो चुकी थी।
तभी दिल्ली के सिंहासन के नाक तले समरवीर धर्मपरायण जाट योद्धा गोकुला जाट और उसकी किसान सेना ने आततायी औरंगजेब को हिंदुत्व की ताकत का अहसास दिलाया। मई 1669 में अब्दुन्नवी ने सिहोरा गाँव पर हमला किया और उस समय वीर गोकुला गाँव में ही था। भयंकर युद्ध हुआ लेकिन इस्लामी शैतान अब्दुन्नवी और उसकी सेना सिहोरा के वीर जाटों के सामने टिक ना पाई और सारे गाजर-मूली की तरह काट दिए गए। उस अत्याचारी अब्दुन्नवी की चीखें दिल्ली की आततायी सल्तनत को भी सुनाई दी थी और मुगलों की जलती छावनी के धुँए ने औरंगजेब को अंदर तक हिलाकर रख दिया। दिखाई भी क्यों नही देतीं, आखिर साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान भी मिट गया था। मथुरा ही नही, आगरा जिले से भी शाही झंडे के निशाँ जमींदोज़ हो गए थे। औरंगजेब भी डर गया क्योंकि गोकुला जाट की सेना में जाटों के साथ गुर्जर, अहीर, ठाकुर, मेव इत्यादि भी थे। वहीँ निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ क्योंकि उन्हें दिखाई दिया कि अपराजय मुग़ल-शक्ति के विष-दंत तोड़े जा सकते हैं। उन्हें दिखाई दिया अपनी भावी आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह।
औरंगजेब ने सैफशिकन खाँ को मथुरा का नया फौजदार नियुक्त किया और उसके साथ रदांदाज खान को गोकुल का सामना करने के लिए भेजा। इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे, पर मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए। क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुला जाट की वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया। अंत में बिल्कुल निराश होकर औरंगजेब ने सैफशिकन खाँ के मार्फ़त महावीर गोकुला के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि यदि वह उस लूट को लौटा दें जो उन्होंने जमा कर ली है, तो उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा। भविष्य में सदाचरण का आश्वासन भी माँगा गया पर गोकुला जाट ने औरंगजेब का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया क्योँकि वे कोई सत्ता या जागीरदारी के लिए नहीँ बल्कि धर्मरक्षा के लिए लङ रहे थे और औरंगजेब के साथ संधि करने के बाद ये कार्य असंभव था। गोकुला जाट ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा? तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है। दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है? इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ था क्योंकि गोकुला जाट ने कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी|
अब औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेना, तोपों और तोपचियों के साथ अपने इस अभूतपूर्व प्रतिद्वंदी से निपटने चल पड़ा और दिल्ली से चलकर 28 नवंबर 1669 को मथुरा जा पहुँचा। औरंगजेब ने यहीं पर अपनी छावनी बनाई और अपने सेनापति हसन अली खान को एक मजबूत एवं विशाल सेना के साथ मुरसान भेजा। गोकुला जाट के अनेक सैनिक और सेनापति जो वेतनभोगी नहीं थे और क्रान्ति भावना से अनुप्राणित लोग थे, रबी की बुवाई के सिलसिले में पड़ौस के आगरा जनपद में चले गए थे। ऐसे में हसन अली खाँ ने गोकुला जाट की सेना की तीन गढियों/गाँवों रेवाङा, चंद्ररख और सरकरु पर सुबह के वक्त अचानक धावा बोला। औरंगजेब की शाही तोपों के सामने ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी। किसान योद्धा भी अपने मामूली हथियारों के सहारे ज्यादा देर तक टिक ना पाए और जाटों की पराजय हुई। इस जीत से उत्साहित औरंगजेब ने अब सीधा गोकुला से टकराने का फैसला किया।
उसने हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश होकर सैफशिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना दिया और उसकी सहायता के लिए आगरा परगने से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद के फौजदार नामदार खान, आगरा शहर के फौजदार होशयार खाँ को भी बुलवा लिया\ यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुला जाट को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी। गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे। इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश। इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है।
वीर गोकुला के विरुद्ध औरंगजेब का ये अभियान शिवाजी जैसे महान राजाओं के विरुद्ध छेङे गए अभियान से भी विशाल था। दिसंबर 1669 के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से 20 मील दूर गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया| औरंगजेब की तोपों, धर्नुधरों, हाथियों से सुसज्जित विशाल सेना और गोकुला की किसानों की 20000 हजार की सेना में तिलपत का भयंकर युद्ध छिङ गया। 4 दिन तक भयंकर युद्ध चलता रहा और गोकुल की छोटी सी अवैतनिक सेना अपने बेढंगे व घरेलू हथियारों के बल पर ही अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित और प्रशिक्षित मुगल सेना पर भारी पङ रही थी। इस लङाई में सिर्फ पुरुषों ने ही नहीँ बल्कि उनकी चौधरानियों ने भी पराक्रम दिखाया था। सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा पर कोई निर्णय नहीं हो सका| दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया| जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे| मुग़ल सेना तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुला जाट पर विजय प्राप्त न कर सकी| भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो| हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था, पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुला जाट का युद्ध तीसरे दिन भी चला|
मनूची नामक यूरोपिय इतिहासकार ने जाटों और उनकी चौधरानियों के पराक्रम का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में शरण लेते, स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी । इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे,जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे । जब वे बिल्कुल ही लाचार हो जाते, तो अपनी पत्नियों और पुत्रियों को गरदनें काटने के बाद भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे”।
मुगल सेना इतने अत्याधुनिक हथियारों, तोपखाने और विशाल प्रशिक्षित संख्या बल के बावजूद जाटों से पार पाने मेँ असफल हो रही थी। 4 दिन के युद्ध के बाद जब गोकुल की सेना युद्ध जीतती हुई प्रतीत हो रही थी पर तभी हसन अली खान के नेतृत्व में 1 नई विशाल मुगलिया टुकङी आ गई और इस टुकङी के आते ही गोकुला जाट की सेना हारने लगी। तिलपत की गढी की दीवारें भी शाही तोपों के वारों को और अधिक देर तक सह ना पाई और भरभराकर गिरने लगी। युद्ध में अपनी सेना को हारता देख जाटों की औरतों, बहनों और बच्चियों ने भी अपने प्राण त्यागने शुरु कर दिए। हजारों नारियां जौहर की पवित्र अग्नि में खाक हो गई। तिलपत के पतन के बाद गोकुला जाट और उनके ताऊ उदयसिंह को 7 हजार साथियों सहित बंदी बना लिया गया। इन सभी को आगरा लाया गया। लोहे की बेड़ियों में सभी बंदियों को औरंगजेब के सामने पेश किया गया तो औरंगजेब ने कहा “जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो और रसूल के बताए रास्ते पर चलो। बोलो क्या इरादा है इस्लाम या मौत?” अधिसंख्य धर्म-परायण जाटों ने एक सुर में कहा – “बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना।”
अगले दिन अर्थात 1 जनवरी 1670 के दिन गोकुला जाट और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर। गोकुल की बलशाली भुजा पर जल्लाद का बरछा चला तो हजारों चीत्कारों ने एक साथ आसमान को कोलाहल से कंपा दिया। बरछे से कटकर चबूतरे पर गिरकर फङकती हुई गोकुला जाट की भुजा चीख-चीखकर अपने मेँ समाए हुए असीम पुरुषार्थ और बल की गवाही दे रही थी। लोग जहाँ इस अमानवीयता पर काँप उठे थे वहीँ गोकुला जाट का निडर और ओजपूर्ण चेहरा उनको हिंदुत्व की शक्ति का एहसास दिला रहा था। गोकुला जाट ने एक नजर अपने भुजाविहीन रक्तरंजित कंधे पर डाली और फिर बङे ही घमण्ड के साथ जल्लाद की ओर देखा कि दूसरा वार करो। दूसरा बरछा चलते ही वहाँ खङी जनता आर्तनाद कर उठी और फिर गोकुला जाट के शरीर के एक-एक जोङ काटे गए। अनेकों ने आँखें बंद कर ली, अनेक रोते हुए भाग निकले| कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी| एक को दूसरे का होश नहीं था| इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर। यही हाल उदयसिंह और बाकी बंदियों का भी किया गया। यह कोतवाली अब जौहरी बाजार का पोस्ट ऑफिस बन गया है।
गोकुला जाट सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे, न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, सन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी। पर शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कोई भी सम्मान नहीं दे सके। सच तो ये है कि अधिकांश हिन्दू जानते भी नहीं कि उनके पूर्वजों को मुगलों के क्रूर शासन से बचाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले गोकुला जाट कौन थे। परन्तु सौभाग्य का विषय है कि राजस्थान के ओजस्वी और मनस्वी कवि श्री बलवीर सिंह ‘करुण’ ने ‘समरवीर गोकुला’ नामक प्रबन्ध काव्य की रचना कर सत्रहवीं सदी के इस उपेक्षित अध्याय को पुनः जीवंत कर दिया है। समरवीर गोकुला सत्रहवीं सदी की किसान क्रान्ति का राष्ट्रीय प्रबन्ध काव्य है।
कवि ने भूमिका में लिखा है- ‘महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह, छत्रपति शिवाजी, हसन खाँ मेवाती, गुरु गोविन्द सिंह, महावीर गोकुला तथा भरतपुर के जाट शासकों के अलावा ऐसे और अधिक नाम नहीं गिनाये जा सकते जिन्होंने मुगल सत्ता को खुलकर ललकारा हो। वीर गोकुला जाट का नाम इसलिए प्रमुखता से लिया जाए कि दिल्ली की नाक के नीचे उन्होंने हुँकार भरी थी और 20 हजार कृषक सैनिकों की फौज खडी कर दी थी जो अवैतनिक, अप्रशिक्षित और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह राज्य विस्तार के लिए नहीं बल्कि राष्ट्र की रक्षा हेतु प्राणार्पण करने आये थे।’
आठ सर्गों का यह प्रबन्धकाव्य इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का महत्त्वपूर्ण अवदान है। कवि ने मथुरा के किसान कुल में जनमे गोकुल के संघर्ष की उपेक्षा की पीडा को सहा है। उस पीडा ने राष्ट्रीय सन्दर्भ में उपेक्षित को काव्यांजलि देने का प्रयास किया है। आदि कवि की करुणा का स्मरण करें फिर कवि ‘करुण’ की पीडा की प्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। इसीलिए कवि ने प्रथम सत्र में गोकुल के किसान व्यक्तित्व को मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया है। कवि ने दूसरे सर्ग में युग की विषम स्थितियों और भारतीय आशावाद को ऐतिहासिक और प्राकृतिक सन्दर्भ में अपनी काव्यकला द्वारा चित्रित कर दिया है। तीसरा सर्ग गोकुला जाट के किसान जीवन की चित्रावली है-बिंबों एवं चित्रों में, जबकि प्रत्यक्ष अत्याचार से रोष-आक्रोश और विद्रोह का वर्णन चौथे सर्ग में किया है। कवि ने आगे की तीन सर्गों में गोकुला जाट और उसकी किसान क्रांति सेना के स्वातंत्रय संग्राम का प्रामाणिक वर्णन किया है। राष्ट्रीय दृष्टि से मुगल हुकूमत के दमनकारी रूप, किसानों का आक्रोश और संकलित संघर्ष के शौर्य का वर्णन इस युद्ध की विशेषताएँ हैं। कवि ने पाँचवें तथा छठे सर्ग में सादाबाद और तिलपत के भीषण संघर्ष को अपनी चिरपरिचित वर्णन शैली में बिम्बपूर्ण शिल्प से प्रत्यक्ष कर दिया है। सप्तम सर्ग प्रमाण है। अष्टम सर्ग- अन्तिम सर्ग प्रबन्धकाव्य का उत्कर्ष है।
कवि ने स्वातंत्रय-संग्राम के कारण घोषित प्राणदंड की भूमिका के रूप में प्रकृति, प्रकृति की रहस्यचेतना तथा भारतीय चिंतन के अनुसार आत्मा की अमरता का आख्यान सुनाया है। कवि कहता है-
तुम तो एक जन्म लेकर बस
एक बार मरते हो
और कयामत तक कर्ब्रों में
इन्तजार करते हो
लेकिन हम तो सदा अमर हैं
आत्मा नहीं मरेगी
केवल अपने देह-वसन ये
बार-बार बदलेगी
अतः गोकुला जाट अपने धर्म का परित्याग नहीं करेगा। बल्कि वह तो दंडित होकर अमर हो जाना चाहता है। गोकला भले ही पराजित हो गए थे पर उनका रक्त व्यर्थ नहीं बहा था। उन्होंने जाटों के हृदय में स्वतन्त्रता के नए अंकुर में पानी दिया और साथ ही पूरे देश को यह सन्देश भी कि अपराजेय समझी जाने वाली मुगलिया फ़ौज अपराजेय नहीं है। इस भावना ने भविष्य के प्रतिकारों की नींव रखी, जिसके बाद सतनामियों ने शहादत दी, 1674 में शिवाजी का संघर्ष सफल हुआ, 1675 में गुरु तेगबहादुर ने कश्मीर के लिए बलिदान दिया, बाद में भरतपुर के महाराज सूरजमल ने स्वातंत्रय ध्वज को फहरा दिया। शायद इसी संघर्ष-श्रंखला का परिणाम रहा सन् 1947 का पन्द्रह अगस्त। इतिहास को इस संघर्ष-श्रंखला को भूलना नहीं देना है और बलवीर सिंह ‘करुण’ का यह प्रबंधकाव्य यहीं पर अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है।
एक बार फिर वो समय आ गया है कि हम अपने पूर्वज वीर गोकुला जाट के जैसा पराक्रम दिखाकर अपने देश धर्म और स्वाभिमान की रक्षा करेँ। किसी चमत्कार की उम्मीद करने वाला समाज मिट जाता है क्योंकि भगवान भी उसी का साथ देता है जो खुद अत्याचार का सामना करने के लिये आगे आता है। अब समय आ गया है कि हम भूल जाएँ अव्यवहारिक अहिंसा को और मिटा दें अतिसहिष्णुता को जिसने हमें नपुंसक बना दिया है।
इन पंक्तियों के साथ महावीर गोकुला जाट को कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि कि—
यह गाल पिटे वह गाल बढ़ाओ, यह तो आर्यों की नीति नही,
अन्यायी से भी प्रेम अहिंसा, यह कब गीता की नीति रही।
हे राम बचाओ जो कहता, वह कायर है, अपना हत्यारा है,
जो करे वीरता और अति साहस, बस वही राम का प्यारा है

नमस्कार- आगे की वंशावली का इतिहास अगले र्आर्टिकल में-

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Gokula Jat - Glorious Hero of Indian History
English trans -           

India has contributed significantly in the creation and development of civilizations and cultures of the world. Being among the oldest countries, this country has been a refuge for many nomadic castes, tribes and convoys of the world. The Greeks, Iranians, Shakas, Huns, Pathans and Mughals have infiltrated India from time to time, but all of them soon either lost their lives or escaped defeated. Mughal Babur also came to India in the early 16th century as a foreigner, invader and robber. He looted some parts of this country with religious frenzy and jihad, but he could not disturb the life of the people here.

If you analyze only some of the major events of Babur to Aurangzeb (1526-1707 AD), then it will be easily known that the major Hindu society of that time had fought and fought against it. This struggle was on both political and cultural grounds, and for this reason, the Mughal invaders could neither convert this country from Darul Harb to Darul Islam nor destroy the cultural life here. The greatest struggle and retaliation of the Hindus took place during the era of Aurangzeb, a matriarch and cruel tyrant. This retaliation took place in both North and South India. One of the heroes of this struggle and retaliation against Hindu invasions against foreign invaders is Veevara Gokul Singh (people know him by name Gokla Jat), who, on the strength of his organization ability, courage and indomitable valor, made a cruel ruler like Aurangzeb The tenon shook and whose January 1 was Sacrifice Day.

It is believed that he was born in Cincinnati and was the ancestor of history-famous Maharaja Suraj Mal, who gave new heights to the Jat kingdom. His father's name was Madu, who had four sons - Sindhuraj, Ola, Jhaman and Saman. This second son of Madu, Ola was later known as Gokul Singh alias Gokula Jat, a symbol of Hindu retribution. Around 1650-51 Madu and his uncle Singha fought a fierce struggle against Rajput King Jai Singh, aided by the Mughal rule, in which Madhu's elder son Sindhuraj died and Singha other Jats followed with families to the fort called Girsa across the Yamuna. Walked towards The responsibility of maintaining the legacy of Madu fell on Gokula Jat and he also came to this fort with Singha. In the 1660–70s, he was considered as an influential landowner of the area called Tilpat. The truth is that Gokul Singh was the leader of all the Hindu masses of Mathura, Vrindavan, Govardhan and Hindaun and Mahavan and the Garhi of Tilpat was his center.
It was the time of 1666, when the Hindu people were trampling on the atrocities of Aurangzeb, the Islamic demon. Temples were being demolished, Hindu women were looted and looted and made to become Muslims by force. Aurangzeb and his soldiers were growing like mad elephants churning the Hindu masses. Hindus were tortured only because they were Hindus. Aurangzeb was steadily moving towards his dream of converting India from Darul Harb to Darul Islam by giving a high position in his army to cruel people like himself. The Rajput servants of the Mughal Empire also started becoming dissatisfied within themselves, but as the author of "Dalpat Vilas", Dalpat Singh has clearly stated that the Rajput leaders could not dare to revolt against the Mughal rule. In such a situation, some Jat leaders and landlords of Uttar Pradesh got the credit for taking up the rebellion against the intolerant religious policy. During the succession war in Shah Jahan's last years, Jat leader Veer Nandaram refused to pay rent in protest against the exploitative religious policy and hoisted the flag of rebellion. He was succeeded by Uday Singh and Gokula Jat. Today, if anyone owes credit to the temple of Mathura, Vrindavan and the defense of Indian culture, and the direction of immediate exploitation, tyranny and state arbitrariness, it is only and only to 'Gokul Singh'.

History is witness that due to the religious policy of Muslims, there has always been a special blow to the holy land of Mathura as it is always getting special attention towards Mathura due to being situated on the highway going from Delhi to Agra. To suppress the Hindus there, Aurangzeb appointed a staunch Muslim named Abdunnavi as the Faujdar of Mathura. In the beginning of 1678, a group of Abdunnavi's soldiers set out in the Mathura district to collect rent. Abdunavi had established a new cantonment near Gokula Jat area last year and this was the sad point of all action. At the call of Sardar Gokula Jat, when the peasants refused to pay the rent, the Mughal soldiers started opening from plunder to the thorns of the peasants and finally the struggle started. At this time, the Mughal demonic decree of Aurangzeb came - "Kafirs Temples to be demolished ”. As a result, many ancient temples and monasteries in the Braj region were destroyed. The Kushans and the Gupta Fund, the priceless heritage of history, were destroyed. Throughout the Brajmandal, Mughalia horsemen and vulture eagles were seen flying along with smoke clouds and flaming flames - the royal horsemen emanating from them. Abdunnavi and his soldiers roamed the city disguised as Hindus and escaped by kidnapping women. Now the victim was oppressed.

Then Samarveer Dharmaparayan Jat warrior Gokula Jat and his peasant army under the nose of the throne of Delhi made the terrorist Aurangzeb realize the power of Hindutva. In May 1669, Abdunavi attacked Sihora village and at that time Veer Gokula was in the village itself. A fierce battle ensued but the Islamic devil Abdunnavi and his army could not stand in front of the heroic Jats of Sihora and all the carrots were cut like radish. The scream of that tyrannical Abdunnavi was also heard by the militant Sultanate of Delhi and the smoke of the burning camp of the Mughals shook Aurangzeb inside. Why do not even appear, after all, the name of the camp of the empire's wazir Sadullah Khan (Shah Jahan Kaalin) was also erased. Not only Mathura, but also from Agra district, the flag of the royal flag was frozen. Aurangzeb was also scared because Gokula Jat's army also included Gurjars, Ahirs, Thakurs, Meo etc. along with Jats. In the same way, life was communicated among the frustrated and dead Hindus because they saw that the toxins of Mughal power could be broken. He appeared to be the keeper of his future hopes - a restorer Gokulsingh.

Aurangzeb appointed Saifashikan Khan as the new Faujdar of Mathura and sent Radandaj Khan with him to face Gokul. After this, fierce wars continued for five months, but all the preparations of the Mughals and the chosen generals proved to be ineffective and unsuccessful. What soldiers and what commander sat above all the terror of Gokula Jat's bravery and war operations. At the end, Aurangzeb sent a treaty to Mahavir Gokula through Saifshikan Khan that if he returned the loot which he had accumulated, he would be forgiven. An assurance of good conduct was also sought in the future, but Gokula Jat rejected Aurangzeb's proposal as he was not fighting for power or jagirdari but for secularism and this was impossible after a treaty with Aurangzeb. Gokula Jat asked what is my crime, which I will apologize to the emperor? Your king should apologize to me, because he has insulted my religion very much, causing great harm. Secondly, who trusts his forgiveness and pleading in this world? Further, it was futile to conduct the discussion of the treaty because Gokula Jat did not leave any scope.
Now Aurangzeb himself started to deal with this unprecedented opponent with a large army, cannons and artillery, and went from Delhi to Mathura on 28 November 1669. Aurangzeb built his camp here and sent his commander Hasan Ali Khan to Mursan with a strong and huge army. Many soldiers and generals of Gokula Jat, who were not salaried and were motivated by revolution, had migrated to Agra district of the neighborhood in connection with Rabi sowing. In such a situation, Hasan Ali Khan made a sudden attack in the morning on the three strongholds / villages of Gokula Jat army, Rewala, Chandrakhar and Sarkaru. In front of Aurangzeb's royal cannons, these small bastions could not prove to be very useful and broke down very quickly. The peasant warriors too could not last long with their modest weapons and the Jats were defeated. Encouraged by this victory, Aurangzeb now decided to directly confront Gokula.

Pleased with the successes of Hasan Ali Khan, he replaced him with the fiefdom of Mathura in place of Saifshikan Khan and also called Amanullah Khan from Agra pargana, Faujdar Namdar Khan of Moradabad, Faujdar Hoshayar Khan of Agra city to assist him. The army started advancing Gokula Jat from all sides. This campaign against Gokulsingh was of a great scale from the invasions which had taken place against the big kingdoms and the kings there. This valor had neither large fortifications, nor the Aravalli hills nor a diverse geographical region like Maharashtra. Despite these unprofitable conditions, the patience and tact with which they faced the central power of a powerful empire and achieved equal results is unprecedented.

This campaign of Aurangzeb against Veer Gokula was even bigger than the campaign against great kings like Shivaji. In the last week of December 1669, Gokulsinh, 20 miles from Tilpat, faced the imperial forces. A fierce battle of Tilpat broke out in Aurangzeb's huge army equipped with cannons, dharnudhars, elephants and Gokula's 20000 thousand army of peasants. The fierce war lasted for 4 days and the small unpaid army of Gokul was heavily outnumbered by the armed and trained Mughal army with the help of their clumsy and domestic weapons. In this fight, not only the men but also their Chaudharanis had shown their might. There was war from morning to evening but no decision could be made. On the second day there was a fierce battle. The Jats were at war with supernatural valor. The Mughal army could not conquer Gokula Jat even though there were cavalry equipped with artillery and jirbakhtar. There have been fewer wars in the history of India where many of the obstructed and weaker sides have fought with such calm determination and steadfast patience. The battle of Haldi valley was decided within a few hours, all the three wars of Panipat ended in one day, but the war of Veerwar Gokula Jat also continued on the third day.
The European historian named Manuchi, referring to the might of the Jats and their Chaudharanis, wrote that "for their safety, villagers would hide in thorny bushes or take shelter in their weak bastions, women would pick up spears and arrows and stand behind their husbands. When the husband had fired his gun, the wife would hand him a spear and fill the gun himself. Thus they protected until they became absolutely unable to continue the war. When they were completely helpless, after cutting their wives and their daughters, they would break on the enemy's lines like hungry lions and were successful in winning the war many times with the help of their undisputed valor ”.

The Mughal army was failing to overcome the Jats in spite of such sophisticated weapons, artillery and vast trained force. After the battle of 4 days, when Gokul's army seemed to be winning the war, then a new giant Mughalia unit led by Hasan Ali Khan came and Gokula Jat's army started losing as soon as this unit came. The fort walls of Tilpat also could not bear the royal cannon walls for a long time and began to collapse. Seeing the defeat of their army in the war, the women, sisters and girls of the Jats also started giving up their lives. Thousands of women perished in the sacred fire of Jauhar. After the fall of Tilpat, Gokula Jat and his tau Uday Singh were arrested along with 7 thousand companions. All of them were brought to Agra. When all the prisoners in iron fetters were presented in front of Aurangzeb, Aurangzeb said, "If you want to get well, accept Islam and follow the path of Rasul. Say what is your intention Islam or death? " A majority of religious Jaras said in unison - "King, if the path of your God and Rasul is the one you are following, then we should not follow your path."


The next day, that is, January 1, 1670, Gokula Jat and Uday Singh were brought to Agra Kotwali — a body bound in iron from tied arms, throat to feet. When the executioner walked on Gokul's powerful arm, thousands of shouts shouted the sky together. Gokula, who fell from the spear and fell on the platform, was screaming the arm of the Jat, testifying to the immense effort and strength that he had. While people shivered at this inhumanity, the fearless and vigorous face of Gokula Jat was making them realize the power of Hindutva. Gokula Jat cast one eye on his armless bloodied shoulder and then with great pride looked at the executioner to strike another. As soon as the second spear went, there arose a lot of crowd and then each and every pair of Gokula Jat were cut. Many closed their eyes, many escaped crying. It was as if there was a holocaust around the police station. One was not aware of the other. Gokulsingh's head fell here in Agra, Keshavraiji's temple in Mathura. The same situation was done for Uday Singh and other prisoners. This Kotwali has now become the post office of Johri Bazaar.

Gokula Jats were not only martyred for Jats, nor was their state taken away by anyone, nor did they discontinue any pension, but in front of them, they were inimical to the powerful Mughal power, humility, and the desire to make a treaty. . But we are ashamed that we could not give any respect to such a great hero. The truth is that most Hindus do not even know who were the Gokula Jats who sacrificed their all to save their ancestors from the cruel rule of the Mughals. But it is a matter of luck that Shri Balvir Singh 'Karun', the powerful and intelligent poet of Rajasthan, has revived this neglected chapter of seventeenth century by composing a poetic poem called 'Samaraveer Gokula'. Samaraveer Gokula is a national poem of the seventeenth century peasant revolution.

The poet has written in the role- 'Maharana Pratap, Maharana Raj Singh, Chhatrapati Shivaji, Hasan Khan Mewati, Guru Govind Singh, Mahavir Gokula and Jat rulers of Bharatpur apart from Jat rulers who have not openly defied Mughal authority. . Veer Gokula Jat should be named prominently because he hummed under the nostrils of Delhi and set up an army of 20 thousand peasant soldiers, which were unpaid, untrained and equipped with domestic weapons. These states did not come for expansion but for the protection of the nation.

This management of eight cantos is an important contribution of the first decade of the twenty-first century. The poet has endured the suffering of Gokul, born in the peasant clan of Mathura. That victim has tried to give Kavyanjali to the neglected in the national context. Remember the compassion of the poet, etc. Then the importance of the inspiration of the suffering of the poet 'Karun' will be clear. That is why the poet has presented the peasant personality of Gokul to the Mughal emperor in the first session. In the second canto the poet has depicted the odd conditions of the era and Indian optimism in historical and natural context through his poetry. The third canto is a picture of the life of the farmers of Gokula Jat - in images and images, while the outrage and resentment from direct tyranny is described in the fourth canto. The poet has given an authentic description of the freedom struggle of Gokula Jat and his Kisan Kranti Sena in the following three cantos. From the national point of view, the repressive forms of Mughal rule, the resentment of the peasants and the bravery of the united struggle are the characteristics of this war. In the fifth and sixth canto, the poet has shown the horrific struggle of Sadabad and Tilpat in his well-known narrative style with iconic craft. The seventh canto is the proof. VIII canto - The final canto is the climax of the management.

The poet has narrated the nature of nature, the mystification of nature and immortality of soul according to Indian thought, as the role of the death sentence declared on account of freedom struggle. The poet says-

You are just born
Die once
And up to the doom in the curbs
You wait
But we are always immortal
Soul will not die
Only your body
Will change again and again

Therefore, Gokula Jats will not abandon their religion. Rather he wants to be punished and become immortal. Even though Gokla was defeated, his blood did not flow in vain. He gave water to a new sprout of freedom in the heart of the Jats and also the message to the entire country that the Mughal army considered unbeatable is not unbeatable. This sentiment laid the foundation for future retaliations, after which the Satnamis sacrificed, Shivaji's struggle was successful in 1674, Guru Tegh Bahadur sacrificed for Kashmir in 1675, later Surajmal, the Maharaja of Bharatpur, hoisted the independence flag. Perhaps the result of this series of struggles was fifteen August 1947. History is not to be forgotten in this series of struggles and this maneuver of Balvir Singh 'Karun' is justifying its place here.

Once again, the time has come that we should protect our country religion and self-respect by showing valor like our ancestor Veer Gokula Jat. A society expecting a miracle disappears because God also supports the one who comes forward to face the persecution himself. Now the time has come for us to forget the impractical nonviolence and eliminate the excesses that have made us impotent.

Along these lines, a tribute and humble tribute to Mahavir Gokula Jat-

Throw this cheek, increase that cheek, this is not the policy of the Aryans,
Love non-violence even to the unjust, when was this the policy of the Gita.
Hey Ram, save who says, he is a coward, his killer,
Whoever does valor and extreme courage, only he is beloved of Rama


Namaskar- History of further lineages in next article-

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